प्रिय अमितजी,
सप्रेम सादर नमस्कार,
मेरे मन में भारत के प्रति आशा की एक किरण अभी भी जागृत है, शायद सदैव रहेगी । हमारी मुख्य कमजोरी या कहिये विडम्बना यह है कि हम हार से पहले हार मान लेते है साथ ही जीत से पहले हम रोमांचित भी हो उठते हैं, बात हम लोग कुछ अधिक तथा अपने कार्य के प्रति उदासीन दृष्टिकोण रखते है । यह बाते सब पर एक समान लागू नही की जा सकतीं कुछ एक अपवाद अब भी बाकी है। अगर समय रहते हम अपने वर्ताब में उचित परिवर्तन ला सके तो हम अपने लिये एक उज्वल भविष्य की कामना कर सकते है। हमारे अंदर एक अन्य प्रवृत्ति विशेष रूप से विद्यमान है - दोषारोपण में हमसे आगे कोई निकल ही नही सकता, बैठे बिठाये दुनिया के हर व्यक्ति हर वस्तु हर पहलू में कहीं दोष ढूंढना हो मीन मेक बताना हो तो भारतीय जंतु से कोई भी देश लोहा नही ले सकता सबकी छुट्टी हो जायेगी ।
कहने चला था आशा की बात मगर भूमिका निराशाजनक हो गई, क्षमा चाहूंगा, हां मै यह कह रह था कि यथासंभव प्रयास करने से किस मुश्किल का हल नही किया जा सकता । हमारे अपने मन की बागडोर जो सर्वथा हमारे अपने हाथ में थी शायद आगे भी रहेगी, कोशिश करके हम अपनी मनःस्थिती को बेहतर बना सकते हैं । यहां मै अन्य भारतीयॊं से कतई भिन्न नही हूं, उन्ही रोगों से ग्रस्त हूं जिनसे बाकी सब, मात्रा उन्नीस बीस हो सकती है । उपचार के लिये यहां कुछ दोहे प्रस्तुत कर रहा हूं –
बुरा जो देखन मै चला बुरा ना मिलिया कोय ।
जो दिल खोजा आपना मुझसे बुरा ना कोय ।।
करत करत अभ्यास के जडमति होत सुजान ।
रसरी आवत जात से सिल पर परत निशान ।।
रहिमन धागा प्रेम का मत तोडो चटकाय ।
टूटे से फिर ना जुडे जुडे गांठ पड जाय ।।
बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरौ पवन कुमार ।
बल, बुधि विद्या देहु मोहि हरहु कलेश विकार ।।
अभय शर्मा, भारत, 2 दिसंबर 2008 9 बजकर 9 मिनट (प्रातः)
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