Friday, January 2, 2009

कहाँ जा रहे हैं ...

ये बस्ती नई है
नए हैं परिंदे
नई चाहतों के
नए हैं घरौंदे

कहाँ जाइयेगा
किसे खोजियेगा
किसी ठौर भी
अब किसे पाइयेगा

कभी एक दिन
अपने दिल से ये पूछा
कहाँ है वो बचपन
वो क़स्बा वो कूचा

जहाँ हमने तुमने
सजाये थे सपने
किसी दौर देखे थे
लगते थे अपने

भंवर में फंसे है
निकलना न चाहें
फैली है दहशत
है धुंधली भी राहें

बढे आ रहें है
जमाने ये काले
कोई इनको रोके
या हमको संभाले

ये हसरत है कैसी
लगे बेबसी सी
जहाँ तक भी देखो
है छाई उदासी

ये कैसा समां है
है कैसा ये मंजर
बस अपनी ही धुन में
चले जा रहे हैं

कोई जुस्तजू है न
अब आरजू है
जीने की खातिर
जिए जा रहे हैं

चलो बाँध लो अपने
सर से कफ़न को
वतन सींच दो आज
अपने ही खून से

बता दो जहाँ को
कहाँ जा रहे हैं
जहाँ जिंदगी हो
वहाँ जा रहे हैं

अभय शर्मा

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